संजीव 'सलिल'
कुछ हवा दो अधजली चिंगारियाँ फिर बुझ न जाएँ.
शोले जो दहके वतन के वास्ते फिर बुझ न जाएँ..
खुद परस्ती की सियासत बहुत कर ली, रोक दो.
लहकी हैं चिंगारियाँ फूँको कि वे फिर बुझ न जाएँ..
प्यार की, मनुहार की, इकरार की, अभिसार की
मशालें ले फूँक दो दहशत, कहीं फिर बुझ न जाएँ..
ज़हर से उतरे ज़हर, काँटे से काँटा दो निकाल.
लपट से ऊँची लपट करना 'सलिल' फिर बुझ न जाएँ...
सब्र की हद हो गयी है, ज़ब्र की भी हद 'सलिल'
चिताएँ उनकी जलाओ इस तरह फिर बुझ न जाएँ..
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Acharya Sanjiv Salil
http://divyanarmada.blogspot.
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